मंत्र का प्रभावी होना, उसकी सफलता,
उसके शद्ध उच्च ही निर्भर होता है। अशद्ध उच्चारण से ध्वनि
व्यतिक्रम उत्पन्न है,
जो मंत्र के उद्देश्य की पूर्ति में बाधक हो जाता है। टीम
उच्चारण से सारी साधना भ्रष्ट हो जाती है। अतः मंत्र-साधना पूर्व उसके नियमों को
समझ लेना आवश्यक होता है। बौष्टिक भौतिक अथवा व्यावहारिक कोई भी कार्य हो, उसके लि विधि-विधान अवश्य निर्धारित रहता है। यह अनुकूल
क्रिया-कलाप ही उसको सफल बनाता है। मंत्र-सिद्धि के लिए तो यह प्रतिबद्धता
और भी अनिवार्य है। किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कौन-सा
मंत्र उपयुक्त होगा,
उसका जप विधान क्या है अथवा उसके लिए स्थान, सामग्री तथा मांत्रिक (साधक) का व्यक्तिगत रहन-सहन क्या और
कैसा होना चाहिए?
किसी भी मंत्र-सिद्धि को प्राप्त करने से पूर्व उसे कौन-सी
कसौटियों पर खरा उतरना होगा तथा मंत्र-प्राप्ति के नियम-साधनों का पालन किस प्रकार
करना होगा,
यहां हम इसी पर विचार करेंगे।
मंत्र-साधक के लिए यह आवश्यक है कि वो उपासना में
योगशास्त्र में दिखाए गये मार्ग का भी परिचय प्राप्त करे। योगमार्ग में साधक का
प्रवेश प्राणायाम से ही आरंभ होता है। अष्टांगयोग, "यम,
नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि
में से तीन,
चार और सातवां अंग इस विद्या के लिए बहुत
उपयोगी हैं। सबल शरीर के
द्वारा इंद्रियों अथवा चित्तवृत्तियों को वश में रखते हुए उन्हें अनावश्यक
प्रवृत्तियों से रोकने का कार्य इन्हीं से संभव होता है। आसन की सिद्धि के बिना
जपादि कर्म सफल नहीं होते।प्राणायाम उपासना का महत्त्वपूर्ण अंग है ही और 'ध्यान से ईश्वरीय तत्त्व का साक्षात्कार किया जा सकता है।
किन्तु मंत्र के ज्ञान को प्राप्त करने से पहले हमें यह समझना होगा कि आखिर ज्ञान
है क्या? ज्ञान और उसके भेद
ज्ञान वस्तुओं की अभिव्यक्ति को कहते हैं। वह दीपक समान
अपने विषयों को प्रकाशित करता है। ज्ञान के दो भेद हैं-१. प्रमा, २. अप्रमा।न्याय के अनुसार प्रमा का अर्थ "निश्चित ज्ञान" अथवा
"यथार्थ ज्ञान" है। यथार्थ ज्ञान,
जैसी वस्तु हो उसको उसी प्रकार, अर्थात सर्पको सर्प और घट को घट जानना है। प्रमा यथार्थ
अनुभव है। यह स्मृति से भिन्न, ज्ञानेंद्रिय
तथा वस्तु के संयोग से साक्षात् या परंपरा रूप में उत्पन्न ज्ञान है।प्रमा वस्तु
का असंदिग्ध अनुभव है। इसमें स्मृति नहीं आती, क्योंकि वह बीती वस्तु या घटना पर आधारित है, इसमें संशयात्मक ज्ञान अथवा भ्रम नहीं आता, क्योंकि उसमें ज्ञान असंदिग्ध नहीं होता। रस्सी में सर्प का ज्ञान प्रत्यक्ष
होते. हए भी यथार्थ नहीं है, अतः वह प्रमा
नहीं है। न्याय के अनुसार जो ज्ञान ज्ञेय वस्तु के यथार्थ धर्म का प्रकाशक हो, वह सत्य होता है और जो ऐसा नहीं होता, वह अयथार्थ अथवा भ्रम होता है। यथार्थज्ञान के अनुसार
व्यवहार करने पर सफलता मिलती है, अतः इसे
अनुकूल-प्रवृत्ति-सामर्थ्य कहते हैं।
भ्रम अथवा मिथ्या ज्ञान के अनुसार कार्य करने से विफलता
मिलती है,
इसलिए यह प्रवृत्ति-संवाद कहलाता है। इस प्रकार प्रमा
और भ्रम सर्वथा विरुद्ध हैं। प्रमा में तर्क भी नहीं आता, क्योंकि केवल तर्क के आधार पर निश्चित ज्ञान नहीं हो सकता।
* प्रत्यक्ष-यह एक अव्यभिचारी ज्ञान है जो इंद्रिय और अर्थ के
सन्निकर्ष से उत्पन्न होता है, जो स्पष्ट है और
किसी नाम के साथ संबंधित नहीं है।
प्रतीत्यसमुत्पाद- इसका अर्थ है, एक वस्तु के प्राप्त होने पर दूसरी वस्तुकी उत्पत्ति अर्थात
एक कारण के आधार पर एक कारण की उत्पत्ति।
अविधा- अविद्या के कारण संसार का दुःख रूप छिपा रहता है।
अविद्या के कारण अहंकार होता है और व्यक्ति अपने को शेष संसार से पृथकू समझता है।
संस्कार- इसका अर्थ है, व्यवस्थित करना अथवा तैयार
करेना । सस्कार का अर्थ उत्पत्ति और उत्पादक क्रिया दोनार
है। उसका अर्थ शुद्ध,
अशुद्ध, धर्म राहित अथवा
अधर्म सहित से भी हैं। विस्तत अर्था में उसका अर्थ वह सकल्प-शक्ति है जो नवीन
अस्तित्व को उत्पन्न करती है। जैसे संस्कार होते हैं. वैसा ही उसका फल होता है।
" विज्ञान-मृत्यु के पश्चात शरीर, संवेदना और प्रत्यक्ष आदि से विनाश हो जाने पर भी विज्ञान
बचता है और यह तंब तक नवीन जन्मों की ओर ले जाता रहता है, जब तक कि निर्गण-प्राप्ति से यह पूर्णतया समाप्त न हो जाए।
नामरूप-बिना विषयों के विषय का कोई अर्थ नहीं है। अतः
नामरूप और विज्ञान परस्पर आश्रित हैं।
षडायतन-नामरूप और विज्ञान सेषडायतन अर्थात् आंख, काम,
नाक,जिहाँ, त्वचा और मानस
ये छह इंद्रियां उत्पन्न होती हैं।
स्पर्श-षडायतन से बाह्य संसार से संबंध रखने के लिए बाह्य
इंद्रियां उत्पन्न होती हैं। कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि आंखें देखने के कारण और
कान सुनने के कारण हैं। इस प्रकार रूप, रस,
. शब्द तथा विचार आदि के जगत् का निर्माण होता है।
" वेदना-जगत की वस्तुओं के स्पर्श से वेदना उत्पन्न होती है।
भिन्न-भिन्न वस्तुओं के स्पर्श से सुख-दुःख आदि भिन्न-भिन्न प्रकार की वेदनाएं
उत्पन्न होती हैं।
तृष्णा- वेदना से उत्पन्न तृष्णा ही संसार के सब दुःखों का
। मूल है।
स्मृति- अनुभव किये हुए विषयों का ठीक-ठीक उसी रूप ... में
स्मरण होना स्मृति है।
मूटु-जो मन मिथ्या दृष्टिं और मिथ्या आचार से व्याप्त होता
है,
उसे मूढ़ कहा जाता है। यह योग साधना के योग्य नहीं होता।
- विक्षिप्त- जो मन इधर-उधर विचरण करता रहता है और किसी एक
विषय पर स्थिर नहीं हो सकता, उसे विक्षिप्त
कहते हैं।
आत्मज्ञान-आम ज्ञान से तात्पर्य अपने वास्तविक स्वरूप को
जानना है।
वैराग्य-मन के निरोध का प्रमुख साधन वैराग्य है।
अवग्रह-अवग्रह वह है, जिसमें इंद्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न प्रथमावस्था का ज्ञान होता
है।
ईहा- यह अवग्रह के बाद की अवस्था है। इसमें जीव को •
दृश्य-विषय के गुण का परिचय होता है।
धारणा-धारणा वह है, जिसमें दृश्य वस्तु का पूर्ण ज्ञान होकर जीव के अंतःकरण पर उसका संस्कार पड़
जाता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की यह अंतिम अवस्था है।
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