जब विषय मंत्रका चल रहा हो, तो यह बात जनसाधारण के मस्ति में स्वाभाविक रूप-से उत्पन्न
हो सकती है कि,
"मंत्रों के कोन थे?" ऋग्वेद विश्व-बाङमय का सर्वप्राचीन ग्रंथमा है। उसमें मंत्रों का बाहुल्य
देखकर मानना पड़ता है कि मंत्रों की रचना वेदों से पूर्व ही हो चुकी थी; वेदों में तो मात्र उन्हें संकलित किया गया है । इसका कारण
संभवतः यह रहा हो कि वेदों के तक मंत्रों का पर्याप्त विकास हो चुका था। वेदों के
पश्चात संहिता ब्राह्मण आरण्यक और उपनिषद् ग्रंथों में भी मंत्रों की प्रतिष्ठा
वर्द्धमान रही. पौराणिक काल में जप-तप के संदर्भ में मंत्रों का उल्लेख भी प्रायः
मिल जाता है।
मनोवैज्ञानिक श्री अरविंद के
अनुसार वेदों में रहस्यवादी दर्शन और गुप्त सिद्धांत भरे हुए हैं। मंत्रों के
देवी-देवता मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के प्रतीक हैं। जैसे सूर्य बुद्धि का प्रतीक
है,
अग्नि सकल्प का प्रतीक है और सोम अनुभूति का प्रतीक है। वेद
प्राचीन यूनान के ऑरफिक और एल्यसिनियन मतों के समान रहस्यात्मक हैं। श्री अरविंद
के अपने शब्दों में,
“में जो परिकल्पना उपस्थित करता हूं, वो यह है कि ऋग्वेद स्वयं एक महान अभिलेख है जो कि
मानव-विचार के उस आदिकाल से हमारे पास बना है, जिनके ऐतिहासिक एल्यसिनियन और ऑरफिक रहस्य असफल अवशेष थे: जिस काल में जाति का
आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक ज्ञान कुछ कारणों से जिनको कि अब निश्चित करना कठिन है, प्रतीकों के मूर्त और भौतिक रूप के आवरण में छिपा दिया गया
था जो भ्रष्टों से अर्थ को छिपा लेते थे और दीक्षितों को प्रकट कर देते थे।"
कान में कुछ कहना, फुसफसाना, गुप्त वार्तालाप करना, सलाह, मशविरा, वेद का संहिता भाग; कार्य-सिद्धि का गुर, शब्द या समूह; जिसके द्वारा किसी देवता की सिद्धि या अलोकिक-शक्ति की प्राप्ति हो, मंत्र है। सहजता की दृष्टि-से यह कहना आधक उपयुक्त होगा कि मंत्रध्वनि-प्रधान साधना है। इसमें ध्वनि-विज्ञान के गूढ़ और सक्ष्मतम सिद्धांत निहित हैं।"भाद-ब्रह्म" की उक्ति का अर्थ यही है कि “नाद" अर्थात "ध्वनि" ही "ब्रह्म" है।
इस प्रकार भी कह सकते हैं कि
ईश्वर का अव्यक्त रूप ध्वनि है। यही ध्वनि अथवा नाम ब्रह्म है, अर्थात् मंत्र ही ब्रह्म है।
का हमारे प्राचीन
ऋषियोंनेअपनेयोगबल द्वारातथाअंतर्दृष्टि-से शब्दकेमहत्त्वकोपहचानाऔरइसेब्रह्म कहकर
इसकीउपासनाविधि निकाली।शब्द कोमंत्रका आधारमानने का मुख्य कारण यह भी है कि यह
अन्य तत्त्वों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली तथा समर्थ है। शास्त्रकारों ने इसकी इसी
असीम सामर्थ्य को देखकर ही इसे "ब्रह्म", कहा।हमारेमुख से जोभी ध्वनि उच्चारित होती है,वोप्रत्येक स्थिति में कोई-न-कोई प्रभाव अवश्य उत्पन्न करती
है जिस प्रकार किमी तालाब आदि में फेंके गए कंकरसे उत्पन्न लहरें काफी दूर तक जाती
हैं,
इसीप्रकार हमारे मुख-सेनिकलीध्वनि आकाश में सूक्ष्मपरमाणुओं
में कंपन पैदा करती है। इन्हीं कंपनो से मनुष्यों में अदृश्य प्रेरणाएं जागृत होती
हैं तथा मस्तिष्क में विचार नजाने कब आजोते हैं, जिन्हें हम समझ ही नहीं पाते हैं, किन्तु मंत्र-विद्वान् जानते हैं कि यह सब सक्ष्मकंपनोंकाचमत्कारहै.जोकि
मस्तिष्ककेज्ञानकोषोंसेटकाराकर विचार के रूप में प्रकट हो उठते हैं। अब यह बात तो
स्पष्ट हो चुकी हे किमंत्रों की रचना का मूलाधार "ध्वनि"
है। यहध्वनि किसी शिशु के रोने से भी उत्पन्न हो सकती है और
किसी वाद्ययंत्र के बजने,
ढोल-नगाड़े पीटने, जोर-से बोलने,गोली चलने जथवा बम विस्फोट आदि के होने से भी हो सकती है।
आज के वैज्ञानिक
ध्वनि-विज्ञान की खोज में अधायन रत हैं, जबकि भारतवर्ष में प्राचीनकाल से इसका प्रचलन था। इस बात के कितने ही उदाहरण
दिए जा सकते हैं। पहला उदाहरण तो क़बि पदमाकर जी का ही है। उन्होंने गंगा लहरी
नामक स्त्रोत के पाठ से कोढ़-से मुक्ति प्राप्त की थी। कवि मयूर ने भी सूर्य
स्त्रोत का उच्चारण कर अपने कोढ़-रोग से मुक्ति पायी थी। इन उदाहरणों से हमें
मालूम होता है कि ध्वनि का सीधा प्रभाव हमारे शरीर पर नहीं, बल्कि हृदय पर भी पड़ता है, जिसके कारण रोगी रोग-मुक्त हो जाता है। फ्रांसिसी वैज्ञानिक क्यूवे ने ध्वनि
के विभिन्न प्रयोग किए और ध्वनि के द्वारा हृदय और मस्तिष्क पर सीधा प्रभाव डालकर
गठिया और लकवे के कितने ही रोगी रोग-मुक्त किए।
ध्वनि के पश्चात् शब्द को भी
मंत्र का आधार माना गया
है। व्यवहार में हम शब्दों
के चमत्कार को देखते हैं। संगीत की ध्वनि से मग तंमय हो जाते हैं। सपेरा बीन बजाकर
सर्पको मोडीत कर लेता है। शब्द की सामथ्र्य सभी भौतिक शक्तियों से बढका सुक्ष्म और
विभेदन क्षमता रखती है। भारतीय तत्त्वदर्शियों ने इस बात की जानकारी प्राप्त कर ली
थी,
और इसके पश्चात ही उन्होंने मंत्रों का विकास किया था। प्राचीन
ऋषियों के मतानुसार शब्द में अपार शक्ति निहित रहती है, क्योंकि यह आकाश तत्तव से संबंधित है और आकाश तत्त्व अति
सूक्ष्म है। स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म की 'शक्ति अधिक होती है। उदाहरण के लिए बारूद में निहित शक्ति को प्रयोग करने के
लिए उसके स्थूल रूप को सूक्ष्म में परिवर्तित करना पड़ता है। यदि बारूद के ढेर में
आग लगाई जाए. तो वो मात्र
"सर"
की आवाज से जल उठेगा। किन्तु जब इसी बारूद को गोलीया बम में
भरकार प्रयोग किया जाए,
तो इसकी लीला बडी ही विनाशक हो जाती है।
आज के बैज्ञानिकों के लिए यह
बात आश्चर्य की हो सकती है कि प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनि किस प्रकार कुछ शब्दों का
गठन करके उनके उच्चारण मात्र से क्षण भर में विनाश और सृजन कर लेते थे। उनमें योग
और ज्ञान की शक्ति तथा तप का बल विद्यमान था। अपने इसी तपोबल से उन्होंने
ब्रह्मास्त्र,
पाशपत्ति अस्त्र और नारायणास्त्र का निर्माण किया और जिनका
प्रयोग केवल मंत्रों के द्वारा किया जाता था। उन अस्त्र-शस्त्रों में जो शक्तियां
विद्यमान थीं,
वो तो आज के आधुनिक अणुबम तक में भी नहीं हैं।
ध्वनि, शब्द के पश्चात् अक्षर का भी मंत्रों में बड़ा महत्त्व है। कितने ही ऐसे अक्षर हैं जो स्वयं व्यक्त रूप में क्रियाशील कमरक रूप में अधिक; इसलिए शब्दों की रचना में क्रिया एवं क्रिया पदों की बहुलता रहती है। प्राचीनकाल के मनीषियों ने उच्चारण-भेद के आधार पर समस्त ध्वनियों का वर्गीकरण करके उन्हें स्वर और व्यंजन दो वर्गों में विभक्त करके वणमाला क अक्षरों का निर्धारण किया था। उन्हीं वर्णा अक्षराम से कुछ को उद्देश्य और प्रभाव-भेद के आधार पर एक विशेष क्रम से प्रयुक्त करके मंत्रों की रचना की गई है।
प्रकृति की समस्त (विभिन्न)
शक्तियों को भारतीय अध्यात्म
में देवी-देवताओं के रूप में
परिकल्पित किया गया है। एक अक्षर (वर्ण) से लेकर दस, बीस,
पचास और अधिक अक्षरों (वर्ण समूह) तक के मंत्र रचे गये।
साधक उनमें से अपनी आवश्यकता और श्रद्धानुसार किसी भी मंत्र का जप करके लाभ उठा
सकता है।
मूल पदार्थ की भांति भाषा का
मूल भी अक्षर है। इसे बीज मंत्रों में सुरक्षित एवं आज भी उसी रूप में अवस्थित देख
सकते हैं। माला मंत्रों या अन्यान्य मंत्रों का जप करने से अधिक शक्ति बीज मंत्रों
का जाप करने से होती है। बीज मंत्र किसी अर्थ या भाषा का अर्थ व्यक्त नहीं करते.
बल्कि वे सीधेशक्तिको अवतरित होने के लिए तथा उसे अभीष्टदिशा में गतिशील होने के लिए
उद्दीप्त करते हैं। व्यवहार में जो बात कहने पर उसका फल और प्रभाव हमें तत्काल
ज्ञात हो जाता है,
मंत्र में ऐसा इसलिए नहीं होता कि भाषा का यह व्यापार स्थूल
से स्कूल की क्रिया है। जिन शब्दों को या दिन भर में हम जितने शब्दों को व्यवहार
में लाते हैं,
उनमें वास्तविक शक्ति न के बराबर रहती है, अतः क्रिया हमें अधिक करनी पड़ती है। मंत्र उसी क्रिया को
सूक्ष्म में हमारे मानसिक जगत् में प्रबल एवं तीव्र रूप से होने देते हैं। इसी
कारण शब्द अपने वास्तविक रूप में फल देने योग्य हो पाता है।
शब्द सूक्ष्म और स्थूल दोनों
प्रारूपों का निर्वाह करता है। जैसे अक्षर शब्द है, यह क्षरणशील न होने का प्रतीक है, जो ब्रह्म या शिव की अवस्था है। किन्तु व्यवहार मेंहम उस शब्दको अक्षर कहते
हैं,
जो अविभाज्य इकाई है और जिसमें किसी भी प्रकार का क्षरण
संभव नहीं होता। प्रत्येक अक्षर का अपना रूप (वर्ण) क्षेत्र और शक्ति ग्राहकता
होती है।जसे अमुक अक्षर अमुक गुणका संग्राहक हे और तदाश्रित तत्व में इस प्रकारका
प्रभावजान्न करता है। बीज मंत्र इसी सिद्धात पर रचे गए हैं और उनके निरंतर जपे
करने से हमारे शरीर में ऐसी विशेषता आ जाती है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा
सकता है कि बीज मंत्र ऐसे साधन है जो हमारे शरीर में बह रही शक्ति को कार्य-विशेष
के लिए प्रकट होने की योग्यता और दिशा प्रदान करते हैं।
प्रत्येक शब्द एक स्वंतत्र
आयाम (डाइमेंशन है और ऐसे समस्त आयाम मिल कर ही किसी वस्तु का सम्यक एवं अविकल रूप
उपस्थित कर पाते हैं और यह क्षमता केवल बीज मंत्रों में जाती है. शब्द संसार में
नहीं। हमने अभी तक मंत्रों की रचना संबंधित बातों का विस्तार किया, आगे भी हम पत्रों से ही संहार आवश्यक बातों की जानकारी देने
जा रहे हैं। मंत्र क्या है आटा पहले ही बारे में जानकारी प्रप्त कर लें।
जैसा कि हमने अभी तक बताया
कि मंत्रों की रचना की मुलाधार ध्वनि है, इसी कारण निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि किसी विशिष्ट ध्वनि-समूह के
उच्चारण को मंत्र की संज्ञा दी जाती है। अधात गिभन्न ध्वनियों के एक निश्चित समूह
को
"मंत्र" कहते
हैं। जब हम बोलते हैं,
तब भिन्न-भिन्न वर्गों के रूप में अनेक ध्वनियां हमारे मुख
से निकलती हैं। ऐसे ही कुछ विशिष्ट वर्णों को जॉ क्रम से संगृहीत होते हैं, उच्चारण करना मंत्र कहलाता है। इसे इस प्रकार भी समझा जा
सकता है कि विश्व में व्याप्त अदृश्य, अलौकिक शक्ति को स्फुरित करके उसे अपने अनुकूल बनाने वाली विद्या को मंत्र
कहते हैं।
धर्म, कर्म, काम और मोक्ष की
प्राप्ति के लिए कर्तव्य की प्रेरणा देने वाली शक्ति को मंत्र कहते हैं। शिव, शक्ति और आत्मा का एकीकरण करने वाला चिंतन मंत्र कहा जाता
है। मानसिक चंचलता को नियत्रित करके उसकी सामर्थ्य को जगाने के लिए विशेष वों का
उच्चारण मंत्र कहलाता है । इष्टदेव की कृपा को मंत्र कहते हैं। शक्ति का उद्भव
करने वाली विद्या का अर्थ भी मंत्र है। जिन अक्षरों-शब्दों के माध्यम से
देवी-देवताओं का अनुग्रह प्राप्त किया जा सके, उसे मंत्र कहते हैं। चिंतन भी एक प्रकार का मंत्र ही है। देवता के सूक्ष्म
शरीर का नाम मंत्र है। अर्थात् कुछ विशेष वर्णो का विशेष विधि से उच्चारण करना ही
मंत्र कहा जाता है।
याम्क मुनिका कथन है कि
मंत्र का प्रयोग मनन के कारण हुआ है। अर्थात् जिन वाक्य, पद्र अथवा वर्णो का बार-बार मनन किया जाता है और वैसा करने
से जो इच्छित कार्य की पूर्ति करते हैं, वो मंत्र कहलाते हैं। वेद वाक्य द्वारा किसी कर्म को करने की प्रेरणा प्राप्त
होने पर वह मंत्र की संज्ञा को प्राप्त करता है। गुरुप्रदत्त मंत्र का.मनन-जप करने
से मनुष्य को समस्त संसार का स्वरूप ज्ञात हो जाता है और उससे मुक्त होने की शक्ति
प्राप्त होती है। जो मनन धर्म से पूर्ण अहंता के साथ अनुसंधान करके आत्मा में
स्फुरण उत्पन्न करता है तथा ससारका क्षय करने वाले त्राण गणों से युक्त हो, वो मंत्र कहलाता है।
मंत्र के लिए गोपन सबसे पहली
शर्त है । देवताओं को प्रसन्न कर उनकी कृपा प्राप्त करने का यह सरलतम साधन है।
व्यक्ति में छिपी हुई शक्तियों को जगाकर उन पर नियंत्रण रखते हुए उचित उपयोगकरना
करानाइसका फल है। संसार की अनविार्यदुःखपरंपरा से मुक्ति पाने के लिए मंत्र ही
सर्वोत्तम सुलभ साधन है । लौकिक सिद्धियों की प्राप्ति के लिएतोमंत्र से बढ़कर
अन्य कोई दूसरा आधार नहीं है। मंत्र देवता का स्वरूप है । जिस देवता का जो मंत्र
है,
वो ही उसका स्वरूप है। स्थानभेद, उद्देश्य भेद एवं विचारधारा के भेद से एक ही देव अनेक रूपों
में उपासना के योग्य माना जाता है।
मंत्र-सिद्धि के बारे में
योगशास्त्र मेंपतंजति मनिने कहा है कि जन्म, औषधि,मंत्र, तप औरसमाधि से
उत्पन्नफल सिद्धि कहलाता है।इससूत्र के अनुसार कुछ साधक पूर्वजन्म के संस्कारों
में जन्म लेते ही सिद्धबनजाते हैं,कुछ औषधि-चूर्ण आदि के सेवन से सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं,कुछ व्यक्तिमंत्रों की उपासना से अपने तथा दूसरोंके कष्टों
कोदूरकरके अभीष्ट प्राप्तकरतेहैं।बहुतसेमनुष्यतप के द्वारा सिद्धि प्राप्त करते
हैं और सामान्य भूमिका से ऊपर उठकर अणिमा,महिमा लधिमा और गरिमा आदि सिद्धियों में जीवन व्यतीत करते हैं।गोस्वामी
तुलसीदास ने रामचरित्र मानस में मंत्रकी महिमा बतलाते हुएकहा है कि मंत्र वर्णों
की दृष्टि से बहुत ही छोटा होता है, किन्तु उससे ब्रह्मा,
विष्णु और शिव आदि सब देवता वश में हो जाते हैं; जैसे महामत्त गजराज को छोटा-सा अंकुश वश में कर लेता है।
अतः यह स्पष्ट है कि मंत्र अंकुशके समान परम शक्ति से युक्त होता है ।मनन करने से
यहप्राण-रक्षाकरता है और गुप्तरूप-से इसकास्मरणकरने के कारण भी इसका नाम मंत्र बना
है।
जब मनुष्य अपनी शारीरिक और
मानसिक शक्तियों द्वारा कोई कार्य सिद्ध करने में असफल रहता है,तो वो अलौकिक शक्तियों का आश्रय लेता है। एक प्रकार से मंत्र-विद्या
अलौकिक शक्तियों अर्थात् देवताओं को प्रसन्न करके उनसे अपना कार्य सिद्ध कराने की
विद्या है।
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