मन का सहयोग ज्ञान और कर्म दोनों में आवश्यक है। यह आभ्यांतरिक इंद्रिय है और यही अन्य इंद्रियों को उनके विषयों की -ओर प्रेरित करता है। सूक्ष्म होतेहुए भी वहसावयव है और भिन्न-भिन्न इन्द्रियों के साथ एक संयुक्त हो सकता हे.ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय बाह्यकारन है।
मन
अहंकार और बुद्धि अंतकरण है। प्राण की क्रिया कोलाह इंद्रियां प्रभावित
हटियों के साथ,
एकसाथ संयुक्त हो सकता है। ज्ञानेंद्रिय तथा बाहरण
हैं।मन, अहंकार और बुद्धि,
अंतःकरण है। प्राण अंतकरण से परिवर्तित होती है
। अंतःकरण को बाहादियां करती हैं। ज्ञानदियों द्वारा ग्रहीत प्रत्यक्ष निर्विकला होता
है। रूप निर्धारित करके उसे सविकल्प प्रत्यक्ष के रूप में परिमित है।जहंकार प्रत्यक्ष
विषयों पर स्वत्य जमाता है। वह उद्देश्य जनकल विषयों में राग और प्रतिकूल विषयों से
द्वेष रखता इन विषयों को ग्रहण या त्याग करने का निश्चय करती है। अंतःकरणऔरदसबाहाकरण,ये सब मिलकरत्रयोदशकरण कर है। बाह्य इंदियां वर्तमान
विषयों से ही संबंध रखती हैं जल
आभ्यांतरिक इंद्रियां
भूत, भविष्य और वर्तमान सभी कालों के विज में संबंध
रखती हैं।
"स्व"
और "पर" मंत्र-साधना आध्यात्मिक जीवन का अविच्छिन्न अंग
है। मंत्र-साधना द्वारा लोक कल्याणकारी कोई भी कार्य किया जा सकता है। व्यक्तिवादी
भावना-से ऊंचे उठकर यदि हम सर्ववाद को मांयता दें, तो वह विशेषकर श्रेयस्कर होगा। परोक्षरूप में
हम भी उससे लाभांवित होंगे, हित के मार्ग पर चलना और कुछ कर दिखाना ही देवत्व
है। "स्व"
में अपने शरीर मात्र का हित है,
“पर" में लोकहित है। यह बहुत बड़ा गुण है।'
- आस्था . मंत्र-साधना में आस्था का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण
है। यदि 'यह माना जाए कि समस्त साधना-प्रक्रिया की आधारशिला
यही
आस्था है,
तो अनुचित न होगा। आस्था से आशय है- विश्वास
! यही विश्वास जब आदर-भावना से युक्त हो जाता है, तब उसे श्रद्धा कहते हैं और श्रद्धा ही सिद्धि
का सोपान है। श्रद्धा का अभाव साधक को शंकालु, संशयग्रस्त और अविश्वासी बना देता है । जत ही
ये दुर्वृत्तियां मन में उभरीं, समस्त साधना खंडित हो जाती है। अतः श्रद्धा-भाव सदा अक्षुष्ण
रहना चाहिए। देव, ब्राह्मण, औषधि, मंत्र आदि भावना के अनुसार फल देते हैं,
अतः यदि मंत्र को हम सामान्य मानते हैं,
तो उसका फल भी सामान्य ही मिलेगा और उसे महान्
मानेंगे, तो वह फल भी बड़ा (महान) देगा।कोई मंत्र छोटा
है, तो भला यह क्या फल देगा?
ऐमा सोचना एकदम निराधार है।छोटी-सी चिंगारी भी
विनाश करने को पर्याप्त होती है। अतः मंत्रछोटा या बड़ा,
कैसा भी हो, उसकी अपूर्व शक्ति पर श्रद्धा रखना नितांत आवश्यक
है। वेदों में वर्णित है, “श्रद्धया सत्यमाप्यते”,
श्रद्धा से सत्य प्राप्त होता है।
आवेग
"आवेगः संभ्रमः", अर्थात् आवेग उत्तेजना की स्थिति है।
"अनातिशयजनिता चित्तस्य संभ्रमाख्या वृत्तिर आवेगः",
अर्थात् आकस्मिक और अतिशय अनर्थ प्राप्त होने
से उत्पन्न संभ्रम को "आवेग”
कहते हैं । अनेक विद्वान् विचारकों ने भी आवेगको
संभ्रम मानाहै। इनमें शारदातनय,भरतमुनि,हेमचंद्र, विद्यानंद,वामन,शिंग भूपाल, रामचंद्र और गुणचंद्र के नाम उल्लेखनीय हैं। विश्वनाथ
चक्रवती के शब्दों में, “आवेगश चित्तसंभ्रमः
इति कर्तव्यतामूढः", अर्थात कर्तव्य
बोधके अभाव में चित्तके संभ्रमकोआवेग कहते हैं।
- आवेग के विभागों की चर्चा करते हुए भारतीय मनोवैज्ञानिकों
ने दुर्घटना, अप्रत्याशित घटना,
आकस्मिक तूफान, भयंकर वर्षा, भयंकर अग्नि, हाथी का पागल हो जाना,
उल्कापात, वज्रपात, चंद्र अथवा सूर्य ग्रहण,
पुच्छल तारे का दर्शन,
भूकंप, आक्रमण, दैवी प्रकोप, शत्रु से खतरा, किसी देवता का आकस्मिक प्रकट होना,
आध्यात्मिक गुरु का आगमन,
अकस्मात् समृद्धि,
सर्प, चोर शुभ या अशुंभ के आगमन का समाचार इत्यादि की
गणना की है।
आवेगके अनुभावों
में भरतमुनि अंगों का शिथिल होजाना, चित्तसंभ्रम,चेहरेकारंगबदलजाना,
विस्मय इत्यादि काउल्लेख करते हैं। शुभ समाचार
मिलने से आवेग खड़े हो जाने, आलिंगन करने, वस्त्राभूषण दानकरनेतथा अश्रुपातइत्यादि में दिखलाईपड़ताहै।इसी
प्रकार अशुभसमाचार मिलने से उत्पन्न हुआ आवेग भूमि पर गिरने, भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक र-तरों के व्यक्ति उसे
अधिक शारिक क्रियाओं में अभिव्यक्त नहीं करते, जबकि निम्न सांस्कतिक . पर अत्यधिक शारीरिक क्रियाएं
होती हैं। आवेग में शारीरिक क्रियाओं का महत्वपूर्ण योगदान है।
जड़ता
"जड़ता नाम सर्व कार्या प्रतिपत्ति”,
अर्थात् जड़ता में सब प्रकार के कर्तव्यों के
विषय में अनिश्चिता की स्थिति होती है। इसमें मनुष्य कर्तव्याकर्तव्य विवेक नहीं कर
सकता । वो मोहित बुद्धि और दुर्बल संकल्प हो जाता है,
तथा शुभ-अशुभ, सुख-दुःख आदि में अंतर नहीं कर सकता। जड़ता में
विभिन्न देश-काल में कर्तव्य ज्ञान नहीं रहता! यह मोह से उत्पन्न होती है। इसका मुख्य
कारण कार्याज्ञान है। विचारक जगन्नाथ ने कहा है कि जड़ता में इंद्रियों की संवेदनाएं
बनी रहती हैं और केवल कर्त्तव्य का ज्ञान नहीं होता, मोह में इंद्रिय प्रत्यक्षीकरण का भी अभाव होता
है। वामन के अनुसार जड़ता में कार्य करने की इच्छा तो है,
किन्तु कर्त्तव्यज्ञान के कारण कार्य करने की
शक्ति नहीं रहती, दूसरी ओर आलस्य में कार्य की इच्छा ही नहीं होती।
जड़ताकेविभागोंकीचर्चाकरतेहुए
भारतीयविचारकोंनेचिंता, अनिश्चय, भय,कर्तव्यज्ञान, प्रिय वस्तुकासाक्षात्कार,
परिस्थितियों को समझने में असमर्थता,
अत्यधिक अनुकूल या प्रतिकूल वस्तुओं का प्रत्यक्षीकरण,
प्रिय व्यक्तियों से वियोग,
निर्णय की शक्ति का अभाव आदि का उल्लेख किया है।
इन सबके कारण संकल्प-शक्ति समाप्त हो जाती है। जड़ता के अनुभावों की चर्चा करते हुए
भरत . मुनिने किसी से बातनकरना,अस्पष्टबोलना,बिनापलकभारेदेखना या बिल्कुल चुप हो जाना आदि का उल्लेख किया
है।
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