Mantra Shakti

Mantras are very powerful and helpful to manifest desired situation in life. Here, We have tried to give you Introduction of all types of Mantras and its uses. There are many mantras and yantra, each one is useful, it upto you,one should select mantra based on nature and desire. we advise you to take expert advise before you start any mantra anusthan.

मुहूर्त

 आकाश में सूर्य, चंद्रादि ग्रहों की स्थिति से वातावरण निरंतर प्रभावित रहता है । जिस समय वायु-मंडल में जैसा प्रभाव होगा, मंत्र-साधना में भी वैसी ही परिणति दृष्टिगोचर होगी। अतः आध्यात्मिक क्षेत्र में भी राशि, लग्न, नक्षत्र, दिन, योग, घटी और पल का भी विशेष ध्यान रखा जाता है। मंत्र-साधना में भी ज्योतिषानुमोदित कालखंडों का सर्वाधिक महत्व है। इन काल-खंडों को "मुहूर्त" कहते हैं।

. प्रतिकूल मुहूर्तअनिष्टकारी होता है।मुहूर्त्तका अर्थहै,समय कायहभाग जो ग्रहों-नक्षत्रों की प्रकाश किरणों से एक विशेष स्थिति मेंप्रभावितहोरहाहो।यहप्रभावकिप्तीकार्य-विशेषकेलिएनिश्चित रूप से अनकूलताअथवाप्रतिकूलताकातत्त्वअपनेमेंसमाहितरखता है। इसलिए अनुकूल मुहूर्तव्यक्तिकोकार्य-सिद्धिकाआधार प्रदान

करता है। इसके विपरीत प्रतिकूल मुहूर्त में किया गया कार्य अनेक । विजों-व्यवधानों के कारण सफल नहीं हो पाता। यहां तक कि । कभी-कभीव्यक्तिकेलिए सुरक्षाका,जीवन और स्वास्थ्यका संकट

उत्पन्न हो जाता है। अतःप्रत्येक कार्य का प्रारंभ अनुकूल मुहर्त के । आधार पर ही करना चाहिए। यदि एक विद्वान् मंत्रज्ञ को ज्योतिष - का भी थोड़ा-बहुत ज्ञान हो, तो बहुत ही अच्छा है।

, नक्षत्र- अध्यात्म के क्षेत्र में हस्त, अश्विनी, रोहिणी, स्वाति, विशाखा, ज्येष्ठा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, श्रवण, आर्द्रा, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र उत्तम माने गये हैं। अतः मंत्र-साधना और मंत्र प्रयोग में इन्हीं में से किसी नक्षत्र की समयावधि का उपयोग करना चाहिए। विद्वान् लोगों की मान्यता यह है कि . पुष्य नक्षत्र का प्रभाव सर्वाधिक उत्तम और कल्याणकारी होता है। वैसे तंत्र-साधना के लिए रवि पुष्य योग और मंत्र-साधना के लिए | गुरु पुष्य योग सर्वोत्तम माना गया है।

ही लग्न-- लग्नों की संख्या बारह है, किन्तुवो सभी समान प्रभावी नहीं हैं। मेष, कर्क, वृश्चिक, तुला, मकर और कुंभ लग्न ही

आध्यात्मिक क्षेत्र के लिए श्रेष्ठ हैं।

उनके प्रयोग के लिए

व्यक्ति को आत्मज्ञानी

2 महीना- मंत्र-साधन के लिए और उनके पर ., बैशाख. श्रावण, आश्विन, कार्तिक, अगहन और फाला ही श्रेष्ठ माना गया है।

पक्ष-सर्य में शक्ति की प्रबलता है,जो व्यक्तिको ३. बनाने में सहायक होती है। शुक्लपक्ष में सूर्य का प्रभाव

क्षीण और चंद्र का प्रभाव अधिक रहता है। तामसिक-वृत्तियों का पोषक है और शुक्लपक्ष में साहिल प्रबलता रहती है। साधक को इन बातों का विचार करके भी कार्य करने का प्रयास करना चाहिए। काय चाहे मंत्र-सिमित हो अथवा मंत्र प्रयोग का!

वार- मंगलवार और शनिवार को छोड़कर शेष सभी वार

अच्छे हैं।

गुरुकृपा गुरुः पिता गुरुर्माता, गुरुर्देश परगतिः । शिवे रुष्टे गुरुभ्राता, गुरौ रुष्टे न करना।

गुरु पिता है, गुरु माता है, गुरु देव है और गुरु गति है। यदि शिव रुष्ट हो जाएं, तो गुरु रक्षा कर लेते हैं, किन्तु गुरु के रुष्ट होने पर कोई रक्षा नहीं कर सकता। शास्त्रों में देव पूजा से पूर्व गुरु पूजा का विधान है। तभी कहा गया है

गुरुभक्ति-विहीनस्य तपो विद्या व्रतं कुखम् ।। व्यर्थ सर्व शवस्यौव नानालंकार-भूषणम् ।।

जिस प्रकार किसी मुर्दे को अनेक अलंकार पहनानामा है, उसी प्रकार गुरु-भक्ति से रहित मनुष्य के तप, विद्या, व्रत oile कुल व्यर्थ हैं।

प्रत्येक प्राणी के जीवन में मार्ग-दर्शक अवश्य होता है। मनुष्य को, जो बौद्धिक रूप में सर्वाधिक क्षमता-संपन्न प्रा। उसे भी मार्ग-दर्शक का अवलंब लेना पड़ता है। यही मार्ग

गुह" कहलाता है । मानव के प्रथम गुरु का पद उसका भार दिया गया है। बच्चे को शैशव में ही वह अनके प्रकार का देते हुए सांसारिक-व्यावहारिक विषयों से परिचित कराने लगती है। आगे चलकर शिक्षा, गृहस्थी और अध्यात्य के क्षेत्र में भी गरु का अवलंब व्यक्ति के लिए आवश्यक रहता है।

मंत्र-साधना में भी प्रथम ज्ञान साधक को गुरु से ही मिलता है। गुरु जो भी पथ दिखाए, जो भी मंत्र सिखाए और जैसी भी साधना-पद्धति समझाए, साधक को निर्द्वन्द्व मन-से, पूरी आस्था के साथ उसे स्वीकार कर लेना चाहिए।यों सैंकड़ों मंत्र हैं, सैकड़ों विधियां हैं, पर वो सबके लिए नहीं हैं। किसके योग्य क्या है, इसका निर्धारण गुरु करता है।

किन्तु व्यक्ति को गुरु का चुनाव भी बहुत सोच-समझकर करना पड़ता है। प्रत्येक मांत्रिक को अपना गुरु नहीं बनाया जा सकता। गुरु को ज्ञान-गुहा का प्रहरी बताया गया है। व्यक्तिगत श्रम और शोध से जो ज्ञान वर्षों में भी अर्जित नहीं किया जा सकता, यह सिद्ध-समर्थ गुरु की कृपा से क्षणमात्र में प्राप्त हो जाता है। अध्यात्म के क्षेत्र में योग्य गुरु को खोज पाना भी एक कठिन कार्य है। यह आवश्यक नहीं कि आपने मांत्रिक के रूप में जिस व्यक्ति (गुरु) का चुनाव किया हो, वो कोई साधु, संत, वनवासी, गृहत्यागी अथवा कोई औघड़े ही हो । नहीं, कोई साधारण व्यक्ति भी अपके गुरुपद के योग्य हो सकता है।

जिसके आचरण में कहीं कलंक न हो, सात्त्विक विचारों वाला, संतोषी, शांत, निश्चल, आस्तिक, मृदुभाषी, चारित्रिक दृष्टि से सम्मानित, छल-छदम् और लोभ-अहंकार से मुक्त, जिसके स्वभाव मेंदया, परोपकार,क्षमाशीलता और सरलता हो, सामाजिक राजनीतिक दलबंदी से मुक्त हो, नियमित रूप से साधना, पूजन और चिंतन करता हो, किसी अंय संप्रदाय या धन का विरोधी न हो, सांसारिक मायामोह से निस्पृह और पवित्र आचरण वाला हो, वो ही व्यक्ति । गुरुपदे के योग्य होता है।

आसन मंत्र-साधना का प्रभाव निर्धारित करने में स्थान की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण होती है। प्रत्येक मंत्र-साधक को अपने लक्ष्य देवी-देवता और मंत्र के अनुरूप आसनका चाहिए। मंत्र-साधना और मंत्र-प्रयोग के लिए अनिवार्य होता है। इसका विशेष कारण यह है कि का अपना स्पर्शजंय प्रभाव होता है। आसन का अर्थ अर्थात जिस पर बैठकर कोई कार्य किया जाए।आसनः की वस्त नहीं है, बल्कि यह शरीर को सुख और कार्य में । के लिए प्रयुक्त होता है। निम्न आसनों का हानिकारक

शासन का प्रयोग करना लिए आसन का प्रयोग हि है कि प्रत्येक आसन

का अर्थ है, आसंदी आसन कोई प्रदर्शन कार्य में अनुकलता

हानिकारक प्रभाव पड़ता

नयंत्रक्रिया करने वाला

१.बांस का आसन-इस पर बैठकर मंत्र-क्रिया करते व्यक्ति दरिद्रता से आक्रांत रहता है।

२.पाचाणका आसन-इस आसन पर बैठकर मंत्री वाले व्यक्ति को अनेक प्रकार की व्याधियां ग्रस्त कर लेती है

३. भूमिका आसन-नंगी जमीन पर मात्रिक क्रियाका से दुःख उत्पन्न होते हैं।

४. छिद्रित काष्ट का आसन- अर्थाः न लगी लक के आसन पर साधनारत रहने से व्यक्ति दुर्भाग्य से पीड़ित रहता है।

- ५. चटाई का आसन- इस आसन पर मांत्रिक क्रिया करने से हानि की ही अधिक प्राप्ति होती है।

६. पल्लवों का आसन- अर्थात् पत्तों और पत्तियों के बने आसन पर विराजमान होने से व्यक्ति मानसिक अस्थिरता से ग्रस्त रहता है। उसे बुद्धि-विक्षेप, चित्त-विभ्रम, उच्चाटन, अविश्वास, भय, शंका आदि से आक्रांत कर लेते हैं।

- उपर्युक्त सभी आसनों को वर्जित माना गया है, क्योकि ये आसन अपना दुष्प्रभाव अवश्य दिखलाते हैं, इनका प्रयोग निषिद्ध है। अब हम निम्न कुछ फलदायक आसनों के बारे में बता रहे हैं

११. कुशासन- इसे उत्तम आसन माना है। यह कुश नामक घास से बनाया जाता है। मंत्र-निया के लिए इसका प्रभाव अचूक रहता है। मंत्र सिद्ध करने में इसका उपयोग हो सकता है मंत्र-जप में भार सफलता और सिद्धि देने के लिए कुशा

अधिक प्रभावी होता है।

१२. याचन- धन, वैभव, पद-प्रतिष्ठा आशिकार, सदा आदि की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्राविध कार्य टिम आसन पर बैठकर किया जाए तो यह शीघ्र फलदायी होता है। किन्नु वर्तमान काल में यह अयंत दुर्लभ है।एमा एक आगन ऋषिकेश में बाबा काली कमली वाले के आश्रम में मंगी का गया है। बाबा इसी आसन पर विराजमान होकर पायना काल था। भगवान शिव तो ओढ़ने, बिछाने और पहनने में पीदमी का प्रयोग किया करते थे, क्योंकि व्याघ्र चर्य उन्हें अत्यंत प्रिय था। इस पर बैठकर साधना करने से सभी प्रकार के जीव-जंतुओं का गुनगटा हो जाता है। प्रेतात्माएं, भूत-व्याधियां अथवा किसी भी प्रकार का मायाजात साधक पर नहीं चल पाता है। इस आसन के बाद कुशासन को ही सर्वश्रेष्ठ मानना चाहिए। __३.पाचर्म-जोसाधक किसी प्रकार सिद्धिकरना चाहते हैं। उन्हें इस आसन का प्रयोग करना चाहिए। काले मृग का चर्म - सर्वाधिक प्रभावशाली रहता है। दिव्यज्ञान, तेज और ब्रह्मज्ञान की - प्राप्ति में यह परम सहायक होता है। साधक की आध्यात्मिक

शक्ति को सुरक्षित रखने, उसका संवर्द्धन करने में यह आसन अद्वितीय है।

४.कंबल-इस आसनको भी श्रेष्ठ माना गया है। कर्म-सिद्धि और कामना-पूर्ति के लिए इसका प्रयोग विशेष रूप से किया जाता है। लाल रंग का कंबल उत्तम होता है, किन्तु बहुरंगी कंबल तो सर्वश्रेष्ठ ही माना जाता है।

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- मुद्रा आसन शब्द के मुख्यतः दो विभाग किये गए हैं। जिस वातुको आधार मानकर या बिछाकर उस पर बैठा जाए. पूजा-पाठ, - जप-तप, मांत्रिक कार्य या सिद्धि की प्राप्ति की जाए; आसन का

यह पहला विभाग है। दूसरा विभाग है, किसी विशेष ढंग से गया है। देवताओं का सन्निधान प्राप्त करने ।

भी विशेष स्थिति में करके बैठना। इरो मद्रा

का सन्निधान प्राप्त करने के लिए हाथ ही उंगलियों के योग से विभिन्न आकृतियों का निर्माणमा जाती है। यह विषय गुरुगम्य है और प्रत्येक देव के आवाहनादि क्रिया एवं अंयाय जप के पूर्वांग और .. रूप में प्रयुक्त होती हैं। साधना की स्थिति में शरीर एक विशेष स्थिति में रखना होता है। सामांयतः कुछ विशेष साधनाओं को छोड़कर, अन्य सभी के लिए "सिद्धासना के "पदमासन उपयुक्त माने गए हैं। साधना के समय आसन को बदलते नहीं रहना चाहिए और किसी दूसरे का आसन तो भूल-कर भी प्रयोग नहीं करना चाहिए।

सिद्धासन की स्थिति और उसके लाभ-"सिद्धों का आतन" सिद्धासन शब्द का अर्थ सामांय ढंग-से यही समझा जाता है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि जिस आसन की सहायता से अभ्यासी सिद्धावस्था को प्राप्त करे, उस आसन को सिद्धासन कहते हैं। सिद्धि का अर्थ है, आत्मसाक्षात्कार या काम पर विजयो यह आसन दोनों प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है, इसलिए इसे

सिद्धासन कहा जाता है।

सिद्धासन की पहली क्रिया में पहले जमीन पर कोई दरी या कंबल बिछाकर, उस पर सामने दोनों टांगों को फैलाकर बैठ जाएं, फिर बायीं टांग को पकड़ें और घुटने से मोड़कर, एड़ी को उस स्थान पर ले जाएं, जो अंडकोषों और गुदा के बीच खाली स्थान है। उस खाली स्थान को.मूलाधार भी कहा जाता है। उसी स्थान से वीर्यगहिनी जाती है। उसी वीवाहिनी नाड़ी पर एड़ी का दबाव पड़ना चाहिए, यही अभीष्ट

बाएं पैर का तलुवा दाहिनी टांग की जांघ से सटा रहेगा। यह ध्यान रखने वाली बात है कि बायीं टांग की एड़ी पर बैठना नहीं है। • इस आसन का यह भी मत: हो है कि गुदा पर ज़ोर पड़े, बल्कि गुदा

और अंडकोषोंबीच जो स्थान है, उसी स्थान पर दबाव पड़े। जब बायीं टांग अ थान पर बैठ जाए तब अंडकोष और जननेंद्रिय को बायीं जांघ और बायीं पेंडुली के बीच में सुरक्षित रख दें।

यदि लंगोट का हो, तो बहुत अच्छा है।ढीले-ढाले अंडकोषों मेंचोट लगने की आशंका रहती है, अतःसाधक कोयह सावधानी .. रखनी पड़ती है कि किसी भी अवस्था में जननेंद्रिय और अंडकोषों

में चोट न लगने पाए, इसलिए चोट से बचावं का उपाय अवश्य - करना चाहिए। यदि कहीं से इन कोमल स्थानों पर आवश्यकता

से अधिक दबाव पड़ता हुआ जान पड़े, तो उन कोमल अंगों को तनिक इधर-उधर सरको कर ठीक कर लेना चाहिए। इस अवस्थामें पहुंचने के बाद दाहिनी टांग को घुटने से मोड़ लें और हाथ के सहारे दाहिनी टांग की एड़ी को शिश्न मूल में जो अस्थि है, और जिसे विटप देश कहते हैं, उसे स्थान पर लगा दें। दाहिने पांव को . बायीं टोंग की जांघ और एड़ी के बीच में धंसाकर रखें।

दाहिने पांव की एड़ी के नीचे जाननेंद्रिय रहती है। यदि ऐसा आभास हो कि जननेंद्रिय पर दवाब पड़ रहा है, तो जननेंद्रिय को थोड़ा इधर-उधर सुविधानुसार सरका दैना अच्छा होता है। जब यह * आसन लग जाए, तब मेरुदंड को सीधा करके बैठ जाएं। पीठ सीधी ,

और तनी हुई रहनी चाहिए तथा दृष्टि भी भ्रूमध्य में रखें, इस आसन में बैठकर गहराई से चिंतन किया जाता है। इससे धारणा-शक्ति का विकास होता है, मानसिक तनावों से छुटकारा मिलता है। इस पदमासने की स्थिति और उसके लाभ- पदय को अति आसन की पूर्णता में हाथ और पैरों के ऐसी आकृति का भान होता है, मानों पंखुड़ियों से या हा हो, आसन बांधने से पूर्व पहले कोई आसर लै.फिर उस पर सामने दोनों रांगों को फैलाकार महिने पांव को घटनों से मोड़कर बायीं जांघ पर पार की एडी बायीं जांध के मूल से मिली रहनी चाहि ततुजा ऊपर की ओर रहेगा।

अब बाएं पांव को घुटना समोड़कर, दाहिनी जांच ले जाकर रख दें। बाएं पांव की एड़ी दाहिने जांघ मल से सटोरी चाहिए। बाए पाव का तलुवा ऊपर की ओर रहेगा। क्रिया को यादबद्ध कहते हैं। इसके बाद दाहिने हाथ की हो को दाहिने पैर के घुटने और फिर बाएं हाथ की हथेली को पैर के घुटने पर रख लें। उपयुक्त क्रिया में पद्मासन बन चका है। दूसरी किया। (बाट चाहें तो) केवल इतना भर किया जाता है कि दोनापुर पर हाथों की हथेलियां खोलकर पलटकर सीधी अनवर

ऊपर रखकर गोद में रख ली जाती हैं। यह आसन भी सिद्धासन

की ही भांति है। इस आसन में बैठकर ध्यान किया जाता है। इससे ५. आत्मिक शक्ति की प्राप्ति होती है और रस, रक्त आदि शरीर की धातुओं की समुचित रूप से वृद्धि होती है।

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