“आत्मनो गरीयस्त्वभावोः", अर्थात गर्व अपनी श्रेष्ठता का भाव है। धनंजय के अनुसार गर्व जन्म, सौंदर्य, शक्ति, संपत्ति
बाटि के कारण अपनी
श्रेष्ठता का मद है। गर्त के विभागों की चर्चा करते हुए भरत मुनि ने प्रभाव,
उच्च कुल में जन्म,
व्यक्तिगत सौंदर्य,
यौवन, विद्वता, शक्ति तथा संपत्ति इत्यादि के कारण श्रेष्ठता
का उल्लेख किया है । पद, समृद्धि, गुण, वांछित वस्तुओं की प्राप्ति इत्यादि को भी गर्व
के कारण माना है। दूसरों के प्रश्नों के उत्तर नदेना,
उनसे बातें न करना,
अपने शारीरिक अंगों को देखते रहना,
अपने बल का अहसास करते रहना,
व्यंगात्मक हंसी हंसना,
कठोर शब्दों का प्रयोग करना,
अपमानजनक शब्द बोलना,
अकस्मात् चले जाना,
आकाश की ओर देखना,
दूसरों का मजाक उड़ाना या उनका अंगभंग कर देना,
बुरा करके प्रसंन होना,
पीठ फेर कर बातें करना,
साफ़ इंकार कर देना अथवा बात करते समय दूसरे व्यक्ति
की तरफ़ न देखना भी गर्व ही माना गया है।
विषाद
"मनसो विविधः सादः विषादः”,
अर्थात् विषाद मन का विविध प्रकार का अवसाद है,
जो विभिन्न कारणों से उत्पन्न होता है। विद्वानों
ने इसे उत्साहनाश, चेतना कां गिर जाना,
आकस्मिक संकट, कार्य को न कर सकना,
शक्ति की कमी, साधन का अभाव, साधननाश, असफलता, अपराधी चेतना, आपत्ति, खतरे की भावना, वांछित वस्तुओं की अप्राप्ति,
दुराचरण, पश्चात्ताप, गुरु के प्रति अपराध इत्यादि माना है। ..
उत्सुकता
“इष्टानुस्मरण-दुर्शनादेर विलंबासहत्वम् औत्सुक्य",
अर्थात् इष्ट वस्तु के स्मरण अथवा दर्शन आदि में
विलंब होने से उत्सुकता उत्पन्न होती है। यह प्रिय व्यक्ति के वियोग में बढ़ता है और
उसकी याद से तीव्र होता है। किसी भी कार्य के पश्चात् उसका फल शीघ्र जानना भी उत्सुकता
का विभाग है।
“उदांवति मनो यस्माद उन्मादश चित्त विप्लव",
अर्थात्
उन्माद एकप्रकारका
चित्त विप्लव है, जो कि इप्ट वस्तुओं की हानि यापियवस्तुओं की मृत्यु
आदि से उत्पन्न होता है । उन्माद nिi में भरतमनिने पियव्यक्तियों की मृत्यु,धनहानि, आकरिमक आशा चात,पित्त और कफ-संबंधी दोषका उल्लेख किया है। अन्य
विधाता ने इनके अतिरिक्त भयंकर आपत्ति, नक्षत्रों का प्रभाव,
इच्छाओं की पूर्ति न होना,
अत्यधिक काम वासना,
दुःख, भय, चिंता या हर्ष सविधेक अलौकिक जीवों का प्रभावादि
को भी उन्माद ही माना है। उन्माद में व्यक्ति के कार्यों के विषय में कोई अनुमान नहीं
लगाया जा सकता, वो किसी भी क्षण कुछ भी कर सकता है।
ऐसेव्यक्ति के
भाव प्रत्येक क्षण बदलत रहते हैं। उसके कार्यों में कोई समीचीनता नहीं होती। उसका मन
अव्यवस्थित हो जाता है।वो मोहग्रस्त हो जाता है। इस प्रकार यह चित्त विभ्रम की अवग्या
है। यह एक प्रकार की व्याधि है और यह त्रास और भय से उत्पन्न व्याधि है। बोध की दृष्टि
से व्याधियों में अंतर करना भारतीय मनोवैज्ञानिकों की अपनी विशेषता है। उनके मत से
व्याधिग्रस्त व्यक्ति स्वयं और अन्य लोगों के लिए अकल्याणकारी है,
जबकि असामान्य संत,
महात्मा या महापुरुष स्वयं और अन्य लोगों के लिए
कल्याणकारी होता है। रोग की दशा और भाव की दशा के उन्माद में भारी अंतर है। पहले की
उपचार की आवश्यकता होती है और दूसरे को सहन किया जाता है। उन्माद के अनुभवों की लंबी
सूची में अर्थ हंसना, रोना-चिल्लाना, गाना, नाचना, दौड़ना, कपड़े,फाड़ना, शरीर पर धूल या राख मलना, चिथड़े पहनना, दूसरों की नकल करना अथवा किसी कार्य की सफलता
के लिए सब कुछ भूल जाना और किसी का नाश करने की धुन में रहना आदि सैंकड़ों अर्थहीन
क्रियाएं आती हैं।
- विशेष- एक अच्छे मंत्रज्ञाको उपर्युक्त सभी बातों
का पूर्ण ज्ञान रहना चाहिए, समय पड़ने पर छोटी-छोटी बातों का भी बहुत महत्त्व
दिखलायी पड़ता है, क्योंकि उपर्युक्त बातों से शब्दों के अर्थ समझ
रहते हैं।
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