ब्रह्मचर्य का पालन शारीरिक, नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी बहुत आवश्यक है, क्योंकि संयम की शक्ति भोगों की शक्ति से प्रबल है। भोगों की अधिकता से व्यक्ति की मानसिक, वाचिक और कायिक शक्ति का ह्यास हो जाता है और आत्मिक शक्ति तो इस प्रकार छिप जाती है कि व्यक्ति को उसका आभास भी नहीं मिल पाता है। मानसिक शक्ति के ह्यास से भले-बुरे कार्यों और उसके परिणामों पर विचार करना असंभव हो जाता है, क्योंकि उस समय उसके विचार का विषय भोग ही होता है और वो यह भी भूल जाता है कि मैं क्या हूं, मेरा कर्तव्य क्या है?
मन के द्वारा ब्रह्मचर्य के विपरीत बातों को सोचना, मन में एक प्रकार का विकार उत्पन्न कर देता है जो व्यक्ति
या साधक के पतन का कारण बनता है। अतः मन को सदा पवित्र रखना चाहिए। ऐसी वाणी जिससे
कामुकता बढ़े,
उससे भी बचने का प्रयल
करना चाहिए। मन, आत्मा और शरीर से शुद्ध रहकर ही व्यक्ति एक सफल मंत्रज्ञ बन सकता है।
संगति
योगी, संन्यासी, तांत्रिक और मांत्रिक की किसी से मन व्यवधान ही उत्पन्न
करती है,
क्योंकि साथ रहने वाले व्यक्ति के क्रिया-कलापों का प्रभाव
पड़े बिना नहीं रह सकता। दूसरों के प्रति उपेक्षा, द्वेष तथा घृणा आदि का आविर्भाव होने लगता है। इसलिए उपर्युक्त लोगों को किसी
की भी संगत से बचकर रहना चाहिए, वरना उसका पतन
अवश्यसंभावी है।
विश्वास
यदि ईश्वर में
विश्वास नहीं है,
तो कोई भी साधना (चाहे वो मत्र-साधना ही क्यों न हो), उपासना या तपस्या सफल नहीं हो सकती, अतः साधक को विश्वास को साधना का एक आवश्यक अंग समझना
चाहिए। विश्वास की शक्ति से कठिन कार्य भी सिद्ध हो जाते हैं। मनोविज्ञान के
अनुसार मनुष्य जिस प्रकार की इच्छा करता है, उसी के अनुरूप हो जाता है। विश्वास में व्यक्ति की संकल्प-शक्ति और आत्मबल की
संपन्नता होती है। ईश्वर को ध्यय मानकर उसकी श्रद्धा और विश्वास सहित आराधना करने
से साधक की सिद्धि में कोई व्यवधान उपस्थित नहीं हो सकता।
स्थिरता
प्रत्येक मंत्र-साधक को अपनी साधना में स्थिर रहना चाहिए।
चित्त कोइधर-उधर चलायमान रखने से श्रेष्ठसफलता प्राप्तनह क्योंकि चित्त की चंचलता
उसमें बाधक सिद्ध होती है ।विधा की अस्थिरता का प्रमुख कारण सांसारिक भोगोंका
आकर्षण जिसके कारणवनके आश्रय में गया हआ साधक भीबारम्बार रहता है। इसका विशेष कारण
यही है कि क्षणिक सुखा सारहीन वासनाएं कभी भी तप्त नहीं होतीं और जैसहा
सिद्ध होती है। विद्वानोंनेचित्त
धकभीबार-बारखिंचता कक्षणिक सुखों से युक्त हाता और जैसे ही
उनकी याद
आती है, वैसे ही व्यक्ति
अपने विषय से भटक जाता है। विद्वानों की यह बात उचित भी है, क्योंकि यदि सांसारिक तृष्णाओं का आकर्षण नहीं मिटेगा, तो आत्मज्ञान के लिए तत्परता और संलग्नता किस प्रकार संभव
होंगी?
तृष्णाओंऔर वासनाओंका जाल अपने बंधन से निकलने नदेने का
प्रयास करता है। किन्तु उसका यह प्रयास चित्त की स्थिरता से विफल हो सकता है।
दूसरा कारण है,
ध्येय के प्रति तर्क-वितर्क। इस मंत्र की सिद्धि लाभदायक
रहेगीअथवा उस मंत्र की;
जैसे कोई यह सोचने में लग जाए कि राम पूजा करूं या कृष्ण की; इंद्र को मानूं या • विष्णु को ? इस प्रकार की अस्थिरता साधक की साधना में अत्यंत व्यवधान
उपस्थित करती है और साधक किंकर्तव्यविमूढ़ रहने के । कारण अपने प्रयास में निष्फल
हो जाता है।
.. ध्येय के प्रति अस्थिरता का रहना भी आत्मोद्वार में सहायक
नहीं हो सकता। अतः कोई भी साधना आरंभ करने से पहले यह निश्चय कर लेना चाहिए कि
आपने साधना करनी किसकी है?
ऐसा निश्चय होने पर आरंभ की गई मंत्र-साधना में निहित
लक्ष्य अप्राप्त नहीं रह सकता । अर्थात् जिसको ध्येय मामा माएगा, वो ही लक्ष्य बन जाएगा। कहने का तात्पर्य यह है कि
विश्वासपूर्वक की जाने वाली साधना साधक को परम लक्ष्य की प्राप्ति कराने में सहायक
होती है,
किन्तु इसके लिए चित्त की स्थिरता अत्यंत आवश्यक है, जो कि विश्वास अथवा आस्तिकता से ही संभव है।
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