सृष्टि के प्रारंभ से अर्थात आदिम युग से ही मानव में दो प्रमुख गुण विद्यमान रहे हैं. एक है कल्पना शक्ति और दूसरा है जिज्ञासा की भावना . मां उस बुद्ध बुद्धि विवेक ज्ञान और उसके आसपास के वातावरण के आधार पर उसकी कल्पना हर समय कोई ना कोई चित्र चित्र या विचार प्रस्तुत करती रहती है और जब यह चित्र या विचार मन की गहराइयों तक बैठ जाता है तो उसे साकार रूप में देखने या उसे क्रियात्मक रूप देने की जिज्ञासा मन में जाग उठती है तत्पश्चात अपनी उस कल्पना को यथार्थ रूप में प्रकट करके जिज्ञासा शांत करने के प्रयास में जुट जाता है नए ज्ञान की प्राप्ति और अज्ञान को ज्ञान में परिवर्तित करने की शपथ जिज्ञासा और इसके जीते-जागते प्रमाण हमारे समक्ष आज भी विद्यमान है यदि मानव मन में उपरोक्त गुण विद्यमान ना होते तो आज हम अपने आप को अपने समाज को अपनी सभ्यता और संस्कृति को जिस उन्नत पर परिष्कृत रूप में देख रहे हैं उस रूप में न देख पाते
क्योंकि आज का युग विज्ञान का युग है और इस युग का मानव निरंतर प्रयासरत और कार्यरत रहकर प्रकृति पर विजय पाने की चेष्टा में है अतः मंत्र जैसी शक्ति पर उसको आस्था भी कम हुई है किंतु आस्था कम होने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि मंत्र शक्ति मात्र कल्पना या काल्पनिक है अथवा ऐसी कोई शक्ति होती ही नहीं भारतीय मंत्र शास्त्र के चमत्कारों से पूरा शास्त्र भरा पड़ा है जिनमें मंत्र शक्ति की अपार महिमा बताई गई है आज भी ना जाने कितने मंत्री ने इस मंत्र शक्ति के द्वारा अपनी कामना सिद्धि करते देखे जा सकते हैं भारतीय जन समुदाय का मंत्र शक्ति के प्रति अटल विश्वास और श्रद्धा है मंत्र शक्ति में लोगों की आस्था कम होने का एक मुख्य कारण यह भी है कि मंत्र विद्या के जानकार लुप्त प्राय हो रहे हैं और आजकल ढोंगी लोगों ने इसे व्यवसाय बना लिया है जबकि इन लोगों को इस विद्या की कोई जानकारी नहीं होती
यदि मन तो बीच विश अब और बात एक मन स्थान मुहूर्त गुरु कृपा आसन मुद्रा और चप्पल के साथ साथ भी शादी का भी निम्न ज्ञान प्राप्त करना होगा.
दिशा
हम दिशा के बारे में स्पष्ट निर्देश है कि मनुष्य को कौन सा कार्य किस दिशा में अभी मूक होकर करना चाहिए वेदिक मत अनुसार प्रत्येक देवता को एक दिशा का स्वामित्व प्राप्त है जैसे इंद्र को पूर्व और दक्षिण वरुण को पश्चिम और शाम को उत्तर का स्वामी माना जाता है इस से ज्ञात होता है कि प्रत्येक दिशा का व्यक्ति कार्य के व्यवहार मनोवृत्ति चिंतन और शरीर पर निश्चित प्रभाव पड़ता है प्रत्येक मंत्र करणार के लिए आसन पर विराजमान होने से पूर्व अपने लिए उचित दिशा का चुनाव कर मन तथा इंद्रियों का प्रशन और स्थिर रखने के लिए पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठना ही श्री कर माना गया है शिव पुराण में कहा गया है कि पूर्व दिशा की ओर मुंह करके जप करने से वशीकरण दक्षिण दिशा में अभी 4 और महाराणा नदी पश्चिम दिशा में संपत्ति लाभ तथा उत्तर दिशा में शांति प्राप्त होती है वैसे साधन और देवता के बीच में पूर्व दिशा की स्थिति ही उचित मानी गई है सूर्य अग्नि ब्राह्मण देवता श्रेष्ठ पुरुषों की उपस्थिति में उसकी ओर पीठ करके भेजना उचित नहीं है कुछ विशेष प्रकार के प्रयोग के लिए दिशा में परिवर्तन हो सकता है किंतु सामान्यतः पूर्व और उत्तर दिशा की मुख करके जब करना ही अधिक श्रेष्ठ है मंत्र साधना जैसे कार्यों के लिए पूर्व दिशा श्रेष्ठ होती है अतः साधन को चाहिए कि प्रातः कालीन संध्या पूजा व्यापारी के लिए पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठे.
शिव संकल्प
शिव संग मुक्तिपथ दो प्रकार के होते हैं एक को शिव और दूसरे को शेर कहते हैं जिसका उद्देश्य समाज सात्विक लाभ की प्राप्ति हो वह संकल्प शिव होता है और जिस संकल्प के अंतर्गत इच्छा पूर्ति आती है जो परपीड़न हिंसात्मक आसुरी वृत्तियों की पोशाक हो वह हसीन है मंत्र साधक का संकल्प उसकी अपनी इच्छा पर निर्भर होता है यदि उस का संकल्प है तो प्रभाव भी शिव ही होना चाहिए इसके विपरीत शिव संकल्प का पर प्रभाव भी अजीब होता है शिव संकल्प के अंतर्गत सार्वजनिक कल्याण के विषय आते हैं कुछ वयकति विषयों को भी शिव शंकर पर अंतर्गत माना जाता है इस मंत्र के प्रयोग में किसी भी हानि ना हो किसी को प्लेस न हो किसी भी प्रकार का शारीरिक मानसिक की आर्थिक आधार उत्पन्न ना हो ऐसे संग अलका शिव संकल्प माना जाता है किंतु दूसरों को पीड़ा पूछते उसे हानि अचल संपत्ति की हानि मारण उच्चाटन विद्वेषण जैसी अभिचार क्रिया शिव संकल्प कि जब तक है इस शिव संकल्प की पूर्ति हेतु किया गया कार्य उत्तम माना जाता है
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